जब इंसाफ कमज़ोर हो जाए तो टीपू सुल्तान जैसे किरदारों की ज़रूरत होती है: एम.डब्ल्यू. अंसारी (आई.पी.एस)
4 मई का दिन बर्र-ए-सगीर की तारीख़ में एक अज़ीम, गैरतमंद, और बेमिसाल सिपाही व हुक्मरान की याद दिलाता है। यह दिन शहादत है उस बहादुर, इंसाफ़ पसंद और उसूल परस्त बादशाह का जिसे दुनिया "शेर मैसूर" टीपू सुल्तान के नाम से जानती है।

4 मई का दिन बर्र-ए-सगीर की तारीख़ में एक अज़ीम, गैरतमंद, और बेमिसाल सिपाही व हुक्मरान की याद दिलाता है। यह दिन शहादत है उस बहादुर, इंसाफ़ पसंद और उसूल परस्त बादशाह का जिसे दुनिया "शेर मैसूर" टीपू सुल्तान के नाम से जानती है।
यह वो बादशाह हैं जिसने अंग्रेज़ों की गुलामी क़बूल करने के बजाय शहादत को तर्जिह दी। वो हुक्मरान थे, मगर ग़ैरत व हमीयत उनके लहू में थी। आज जब उनका यौम-ए-शहादत आता है, तो मुल्क की फ़िज़ा में अल व इंसाफ़ की कमी, बदअमनी, और गिरते हुए अख़लाक़ी इक़दार इस की ग़ैरत भरी क्रियादत को मजीद यादगार बना देता है। हमें यह सोचने पर मजबूर होना पड़ता है कि कहीं हमने ऐसे किरदारों को सिर्फ तारीख़ की किताबों तक महदूद तो नहीं कर दिया?
टीपू सुल्तान किसी मखसूस फ़िर्के, क्रॉम या ज्ञात को तर्जिह नहीं देते थे बल्कि उनका पैग़ाम पूरे भारत के लिए था। उन्होंने अपनी हुकूमत में अद्ल व इंसाफ़ को बुनियाद बनाया। उनके दौर-ए-हुकूमत में हर मज़हब, हर ज़ात, हर फ़र्द को यकसां हक़ूक़ हासिल थे। वो सिर्फ तलवार के शाहसवार न थे, बल्कि उनकी रियासत में फ़लाही कामों का भी सिलसिला था, तमाम कामों की फरावानी थी और चारों सिम्त उनका बोल बाला था।
टीपू सुल्तान ने ख़्वातीन के हकूक के तहफ्फुज़ के लिए जो इक़दामात किए वो न सिर्फ अपने वक़्त के लिए इनक़िलाबी थे बल्कि आज के दौर में "बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ" जैसे नारों का अमली नमूना कहे जा सकते हैं। उस अहेद में औरत को कमतर हक़ीर और महज़ एक जिंसी शै समझा जाता था। ख़ास तौर पर निचली ज़ात की औरतें दलित, शूद्र, और दीगर पसमांदा तबक़ात से ताल्लुक रखने वाली ख़्वातीन जिन्हें न इज़्ज़त-ए-नफ़्स का हक़ हासिल था और न ही तन ढांपने की आज़ादी । मुआशरे का जाबिर इस क़दर संगीन था कि इन औरतों पर जिस्म ढकने पर जुर्माने और तशद्दुद किया जाता। ऐसी ही एक ख़ातून थी नंगेली, जिसका ताल्लुक़ केरला के इलाक़े से था । जब इस पर नंगे जिस्म रखने के टैक्स का तक़ाज़ा किया गया तो इस ने अपनी छाती काट कर उसे टैक्स के तौर पर पेश किया। यह एहतजाज सिर्फ उस का ज़ाती रद्द-ए-अमल न था बल्कि एक अहेद के ख़िलाफ़ ख़ामोश इनक़लाब था।
ऐसे ही पस-ए-मंज़र में टीपू सुल्तान का यह एलान कि "हर औरत को पर्दे और हया का हक़ हासिल है, ख़्वाह वो किसी भी ज़ात, मज़हब या तबके से ताल्लुक रखती हो एक अदालती इनक़लाब से कम न था । उनके इस फ़रमान के बाद रियासत-ए-मैसूर में निचली ज़ात की ख़्वातीन को वो समाजी तहफ़्फ़ुज़ मिला जिस से वो पहली बार ख़ुद को इंसान समझने लगीं। टीपू सुल्तान ने औरतों के लिए तालीमी मवाक्रे, विरासत के हकूक़, और मुआशरती वक़ार को क़ानूनी शक्ल दी, जो कि उस दौर में किसी हिन्दू या मुसलमान हुक्मरान के हाँ आम न था।
यह हक़ीक़त है कि उनके दौर में औरत को बापर्दा ज़िंदगी, तालीम, और जायदाद में हिस्सा जैसी नेअमतें मिलीं, जो सदियों तक फ़क़त ऊँची जात की ख़्वातीन को दस्तियाब थीं। उन्होंने रियासती सतह पर उस निज़ाम को चैलेंज किया जो औरत के बदन को भी टैक्स के क़ाबिल समझता था, और औरत के हिजाब को न सिर्फ मज़हबी बल्कि इंसानी हक़ क़रार दिया। आज जब हम ख़्वातीन के हकूक़ के हवाले से क़ानून साज़ी की बात करते हैं, तो टीपू सुल्तान जैसे इनक़िलाबी हुक्मरान की मिसाल हमें यह सबक देती है कि एक रियासत तभी इंसाफ़ पर क़ायम हो सकती है जब उस में हर इंसान खुसूसन हर औरत को उसका बुनियादी हक़ हासिल हो।
उन्होंने तालीम को आम करने और बच्चियों की तालीम पर जोर दिया। उनका मानना था कि "किसी क़ौम की तरक़्क़ी उसकी औरतों की तालीम से मशरुत है।" उन्होंने मदरसों, लाइब्रेरियों, और तर्बियती इदारों का क्रयाम किया जहाँ ख़्वातीन भी ज़ेवर-ए-इल्म से आरास्ता हो सकें। टीपू सुल्तान की सबसे खूबसूरत पहचान उनका बैन अल- मज़ाहिब इत्तेहाद था। उनका वज़ीर-ए-आज़म पंडित पूर्णिया एक हिन्दू था, जो उनके क़रीब तरीन मुशीरों में शामिल था हालाँकि बाद में उसने ग़द्दारी की। उन्होंने पूरा इख़्तियार दे रखा था कि वो रियासती उमूर में फ़ैसले कर सके। यह उस दौर की मिसाल है, जब मज़हब, जात, या अक़ीदे की बुनियाद पर तफ़रीक़ न की जाती थी, बल्कि सलाहियत को मीयार बनाया जाता था।
आज जब हमारा मुआशरा फ़िक़ वारियत, जात-पात और मज़हबी तास्सुब का शिकार है, तो हमें टीपू सुल्तान की तालीमात और तर्ज़-ए-हुकूमत की तरफ़ लौटने की ज़रूरत है। उनकी ज़िंदगी हमें सिखाती है कि असल ताकत तलवार में नहीं, इंसाफ़ में है। टीपू सुल्तान ने अंग्रेज़ों की गुलामी क़बूल नहीं की, बल्कि अपनी जान दे दी, मगर कभी सर नहीं झुकाया । उनका वो मशहूर क़ौल आज भी हमारे दिलों में गूंजता है:
शेर की एक दिन की जिंदगी, गीदड़ की सौ साल की ज़िंदगी से बेहतर है।
आज मुल्क में हालात अफ़सोसनाक हैं। मज़हब और शनाख़्त की बुनियाद पर इंसानों के दरमियान तफ़रीक बढ़ती जा रही है। कहीं नाम पूछ कर मार दिया जाता है, कहीं मस्जिद में इबादत करने वालों को निशाना बनाया जाता है, और कहीं गाय के नाम पर बेगुनाहों को सर-ए-बाज़ार पीट पीट कर मार दिया जाता है, इंसान का नाम ही ज़िंदगी और मौत के फ़ैसले का पैमाना बन चुका है। तालीमी इदारों, शहरों और सड़कों के नाम तक बदले जा रहे हैं ताकि तारीख़ का चेहरा मस्ख़ कर के सिर्फ एक मख़सूस नज़रिया ग़ालिब कर दिया जाए। और यह नाम महज़ इस बुनियाद पर बदले जा रहे हैं कि वो किसी ख़ास मज़हब या शख़्सियत से मंसूब थे। यह हालात न सिर्फ जम्हूरी इक़दार के मुनाफ़ी हैं बल्कि इंसानियत के बुनियादी असूलों से भी टकराते हैं। यह वो दौर है जहाँ तास्सुब ने इंसाफ़ को दबा दिया है, और नफ़रत ने भाईचारगी की जगह ले ली है।
ऐसे माहौल में टीपू सुल्तान का अद्ल व इंसाफ़ और मज़हबी हम आहंगी पर मबनी तर्ज़-ए-हुकूमत एक रौशन मिसाल बन कर सामने आता है। उन्होंने कभी किसी की शनाख़्त, मज़हब या ज़ात को उसकी इज़्ज़त या इंसाफ़ से महरूम करने का ज़रिया नहीं बनाया। अगर आज की हुकूमत भी उनके तर्ज़-ए-फ़िक्र को अपनाए, तो भारत एक बार फिर इत्तेहाद, इंसाफ़ और इंसानियत का नमूना बन सकता है।
औरंगज़ेब रहमतुल्लाह अलैह के ख़िलाफ़ जो ज़हर उगला गया, और उनकी कब्र पर सियासत की गई, वो न सिर्फ तारीख़ से जहालत का सुबूत है बल्कि समाज में नफ़रत के बढ़ते हुए ज़हर का भी पता देता है। एक बाशऊर क़ौम अपने माज़ी को हमेशा याद रखती है, बल्कि उस से सबक सीख कर हाल को बेहतर बनाती है। लेकिन आज हमारे बुज़ुर्गों की तौहीन की जा रही है बल्कि फ़िक्र परस्ती को हथियार बना कर समाज को बाँटने की कोशिश की जा रही है। टीपू सुल्तान और औरंगज़ेब जैसे किरदार हमें याद दिलाते हैं कि असल क्रियादत वही होती है जो दीन, अद्ल और ग़ैरत पर मबनी हो और यही पैग़ाम आज हमें सबसे ज़्यादा दरकार है।
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शहीद टीपू सुल्तान एक ऐसे बादशाह हैं जो मुल्क की हिफ़ाज़त करते हुए मैदान-ए-जंग में शहीद हुए। 4 मई, यौम-ए-शहादत टीपू सुल्तान सिर्फ एक तारीखी दिन नहीं, बल्कि हमें याद दिलाती है कि हमें भी इंसाफ़, बराबरी, ख्वातीन के हक़ तालीम और क़ौमी इतेहाद के लिए आवाज़ बुलंद करनी है। एससी, एसटी और दलितों को इंसाफ़ दिलाने के लिए पुरज़ोर आवाज़ बुलंद करना होगी, जो मनुवादी -पूंजीवादी अनासिर बदनाम करने में लगे हुए हैं उन्हें हर जगह से उखाड़ फेंकना है यही इस दिन का पैग़ाम है। टीपू सुल्तान आज भी ज़िंदा हैं। हमारी सोच में, हमारे उसूलों में, और हर उस इंसान में जो ज़ुल्म के ख़िलाफ़ खड़ा होता है।