जब तक सभी पसमांदा तबकों में इत्तेफाक व इत्तेहाद नहीं होगा, पसमांदा तहरीक को सफलता मिलना नामुमकिन है: एम.डब्ल्यू. अंसारी (आई.पी.एस) रिटायर्ड डी. जी
बरसों से सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक और राजनीतिक वंचनाओं का शिकार पिछड़ा तबका देश की आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा है। इन वंचनाओं की एक बड़ी वजह इन तबकों की अंदरूनी बंटवारा (खींचतान) है। बिरादरी, जात, मस्लक, इलाका इन तमाम बुनियादों पर हम सब पिछड़े इस कदर बंटे हुए हैं कि हमारा सामूहिक दुख भी बिखरा हुआ महसूस होता है।

पिछड़े में तो बस एक ही दो लीडर होते हैं
वैसे पिछड़े में तो बस ब्रेकर ही ब्रेकर होते हैं
(ना मालूम)
बरसों से सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक और राजनीतिक वंचनाओं का शिकार पिछड़ा तबका देश की आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा है। इन वंचनाओं की एक बड़ी वजह इन तबकों की अंदरूनी बंटवारा (खींचतान) है। बिरादरी, जात, मस्लक, इलाका इन तमाम बुनियादों पर हम सब पिछड़े इस कदर बंटे हुए हैं कि हमारा सामूहिक दुख भी बिखरा हुआ महसूस होता है। यही वह बिखराव है जो हमारी आंदोलनों की कमजोरी बन चुका है।
अगर हम इतिहास का अध्ययन करें तो यह स्पष्ट होता है कि जब भी किसी क़ौम, तबके या आंदोलन ने सफलता प्राप्त की, उसके पीछे सबसे बड़ी वजह उच्च शिक्षा, राजनीतिक चेतना और एकता ही थी । एकता वह ताक़त है जो कमज़ोरों को मज़बूत, ख़ामोशों को गूया, और पिछड़ों को आगे बढ़ने का हौसला देती है। लेकिन अफ़सोस कि पिछड़ा तबका बावजूद तादाद और सलाहियत के इन तीन नेमतों से महरूम है।
यह एक तल्ख हक़ीक़त है कि पिछड़ा तबका तादाद में तो अक्सरियत रखता है, लेकिन सत्ता, नीति निर्माण और संसाधनों के बंटवारे में कहीं नज़र नहीं आता। यह तबका न सिर्फ़ दूसरों के ज़ुल्म व शोषण का शिकार रहा है, बल्कि अंदरूनी टकराव और नेतृत्व की कमी ने भी इसके ज़ख़्मों को गहरा किया है। हर बिरादरी अपनी लड़ाई अलग लड़ रही है, हर तंजीम अपना रास्ता अलग चुन रही है। इससे ताक़त बंट जाती है, और ताक़त की बँटवारा ही वंचना का कारण बनती है।
पिछड़े नेतृत्व की कमी एक सामाजिक व राजनीतिक ख़ला को जन्म देती है जो किसी भी क़ौम की तरक्की में रुकावट बन सकती है। जब दबे-कुचले या कमज़ोर तबकों की सही नुमाइंदगी करने वाला नेतृत्व मौजूद न हो, तो उनके मसले नज़रअंदाज़ होते हैं और उनकी आवाज़ें दब जाती हैं। इस नेतृत्व की गैर मौजूदगी का मतलब यह है कि वह तबका जो पहले ही आर्थिक, शैक्षिक और सामाजिक लिहाज़ से पीछे है, और ज़्यादा वंचना का शिकार हो जाता है। एक मज़बूत और मुखलिस नेतृत्व न सिर्फ़ इन तबकों के मसलों को ऊँचे स्तर पर उजागर करता है बल्कि उनके हक़ के तहफ़्फ़ज़ के लिए अमली क़दम भी उठाता है। लिहाज़ा, पिछड़े तबके की भलाई के लिए ज़रूरी है कि उनकी नुमाइंदगी करने वाला नेतृत्व मौजूद हो, जो उनके मसलों को सही अंदाज़ में समझकर असरदार तरीके से हल कर सके।
इससे पहले भी मुख्तलिफ मौकों पर पिछड़े तबकों के लिए कॉमन एजेंडे की बात कही जाती रही है। इस कॉमन एजेंडे में पिछड़े तबकों के मसलों और माँगों को एक साझा बयानिया देने की कोशिश की गई। यह एजेंडा सिर्फ़ शिकायतों की फेहरिस्त नहीं बल्कि एक मुकम्मल ख़ाका है जिसमें तालीम, रोज़गार, जनगणना में पहचान, राजनीतिक नुमाइंदगी, सामाजिक इंसाफ़, मीडिया में नुमाइंदगी, और मज़हबी बराबरी जैसे अहम नुक्ते शामिल हैं। यह एजेंडा हमें बताता है कि अगर हम अपनी माँगों को एक ज़बान में, एक रुख में, और एक आवाज़ में उठाएँ, तो कोई ताक़त हमें नज़रअंदाज़ नहीं कर सकती। लेकिन शर्त यही है कि हम मुतहिद हों, जात या बिरादरी की तफ़रीक़ से बुलंद हो कर सामूहिक भलाई को तर्जीह दें।
अगर मुत्तहिद होकर कोई कॉमन एजेंडा नहीं बनाया तो पिछड़ा तबका हमेशा पिछड़ेपन का शिकार ही रहेगा। जिस तरह १९५० का राष्ट्रपति आदेश (Presidential Order) भारत के संविधान के तहत जारी किया गया एक अहम हुक्मनामा था, जिसका मक़सद पिछड़े तबकों, ख़ास तौर पर अनुसूचित जातियों (Scheduled Castes) और अनुसूचित जनजातियों (Scheduled Tribes) को सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक तरक्क़ी के मौके देना था। इस हुक्म के तहत सिर्फ़ हिंदू मज़हब से ताल्लुक रखने वाले अफ़राद को अनुसूचित जातियों की सहूलियतों का हक़दार क़रार दिया गया था, जिन्हें बाद में सिख (1956) और बौद्ध (1990) मज़ाहिब में भी तौसी दी गई, लेकिन मुसलमान और ईसाई पिछड़े तबकों को इससे बाहर रखा गया। इस फ़ैसले ने मज़हब की बुनियाद पर इम्तियाज़ को जन्म दिया। यह हुक्मनामा भारत में पिछड़े तबकों के हुकूक़ और बराबरी के सिलसिले में एक तवील बह और जद्दोजहद की बुनियाद बना जिसका असर आज तक नज़र आता है और आज तक यह आइनी तफ़रीक़ (Constitutional Discrimination) पिछड़े मुसलमानों के साथ जारी है। यह संविधान की खिलाफ़वर्जी है और भारत के संविधान पर हमला है।
महात्मा गांधी की जान बचाने वाले पिछड़े रहनुमा बतख मियाँ अंसारी इस इम्तियाज़ की बाज़ेह मिसाल हैं जिन्हें उस वक़्त के राष्ट्रपति के किए गए वादे से आज तक महरूम रखा गया। वादे में ५३ बीघा जिस ज़मीन का उनसे वादा किया गया था उसे आज तक की सरकारें पूरा नहीं कर सकीं और उनके ख़ानदान वाले मज़दूरी करने को मजबूर हैं। आज तक इंसाफ़ की गुहार लगा रहे हैं और आज तक इंसाफ़ नहीं मिला, नज़ीर तमाम नाम निहाद पिछड़े लीडर अपनी तिजोरियाँ भरते रहे और महज़ अपनी पार्टी के गुलाम बने रहे।
सिर्फ़ जगह जगह तंज़ीमें क़ायम करके बड़े-बड़े जलसे करके यह कहते रहना कि हमें मुत्तहिद होना चाहिए काफ़ी नहीं । इत्तिहाद एक मुसलसल अमल है, एक तर्ज़-ए-फ़िक्र है। इसके लिए क़ुर्बानी देनी पड़ती है, इख़्तिलाफ़ात को बर्दाश्त करना पड़ता है, और एक बड़ी कामयाबी को ज़ेहन में रखना होता है तब कहीं जाकर एक लंबी जद्दोजहद के बाद कामयाबी मिलती है।
अगर कोई एक बिरादरी या तंज़ीम आगे बढ़ती है, तो दूसरों को उसे सहारा देना होगा न कि तन्क्रीट का निशाना बनाना । क्रियादत को जाती मफादात के बजाय इज्तिमाई फ़लाह को तर्जीह देनी होगी। नई नस्ल को जज़्बात से ज़्यादा शऊर के साथ काम लेना होगा, और सोशल मीडिया को सिर्फ़ एहतिजाज का ज़रिया नहीं बल्कि तालीम व तरबियत का हथियार बनाना होगा। भारत सबका है भारत किसी एक का नहीं, सबने अपना लहू देकर इसे सींचा है। हमें भारत के संविधान के दायरे में रहते हुए अपने हक़ के लिए आवाज़ बुलंद करनी है।
वक़्त बहुत तेज़ी से गुज़र रहा है, और जो क़ौमें या तबकात वक़्त की आवाज़ को नहीं पहचानते, तारीख़ उन्हें पीछे छोड़ देती है। अगर पिछड़ा तबका अब भी नहीं जागा, अगर उसने अब भी अपनी तफ़रीक़ को ख़त्म न किया, तो आने वाली नस्लें भी उन्हीं ज़ख़्मों के साथ जियेंगी । इसलिए कि कामयाबी सिर्फ़ उनका मुक़द्दर बनती है जो मुत्तहिद होते हैं और जब तक पिछड़ी तहरीक में इत्तिहाद नहीं होगा, कामयाबी का ख़्वाब महज़
एक ख़्वाब ही रहेगा।
अब वक़्त आ गया है तमाम पिछड़ी तंज़ीमें आपस की नाइत्तिफ़ाक्रियाँ मिटा कर इत्तेफ़ाक़ व इत्तिहाद पैदा करें। अपना एक मुश्तरका एजेंडा बनाएं। अपने अंदर मनुवादी और पूंजीवादी अनासिर से लड़ने की ताक़त पैदा करें। अपनी क्रियादत खड़ी करें और सबसे अहम पूरे समाज का बच्चा-बच्चा आला तालीमयाफ़्ता बन जाए इसकी फ़िक्र कोशिश और जद्दोजहद करें तभी कामयाबी पिछड़े तबकों का मुक़द्दर बनेगी ।
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