राजनैतिक व्यंग्य-समागम

ये लो कर लो बात। ये सेकुलरिस्ट, ये वामी अब क्या बच्चों को मनुस्मृति पढ़ाने भी नहीं देंगे? पढ़ाने पर, जी हां सिर्फ पढ़ाने पर, बल्कि पढ़ाने के आइडिया पर ही इतना हंगामा खड़ा कर दिया है, तो जरा सोचिए कि जब हिंदू राष्ट्र में मनुस्मृति लागू होगी, तो ये कैसा तांडव करेंगे।

राजनैतिक व्यंग्य-समागम

1. मनुस्मृति पढ़ाने तो दो यारो! : राजेंद्र शर्मा 

ये लो कर लो बात। ये सेकुलरिस्ट, ये वामी अब क्या बच्चों को मनुस्मृति पढ़ाने भी नहीं देंगे? पढ़ाने पर, जी हां सिर्फ पढ़ाने पर, बल्कि पढ़ाने के आइडिया पर ही इतना हंगामा खड़ा कर दिया है, तो जरा सोचिए कि जब हिंदू राष्ट्र में मनुस्मृति लागू होगी, तो ये कैसा तांडव करेंगे। फौज बुलानी पड़ेगी फौज ; उससे कम में हालात संभलने से रहे। 

हम तो कहते हैं कि इस खतरे की वजह से भी मोदी जी की सरकार को कम-से-कम इस मामले में किसी यू-टर्न की इजाजत नहीं देनी चाहिए। अकेले अपने बूते बहुमत नहीं है, तो न सही। बैसाखियों का सहारा लेने की मजबूरी है, तो वह भी सही। जैसे वक़्फ कानून समेत सभी मामलों में जोड़-जुगाड़ का पुख्ता इंतजाम किया है, वैसा ही इंतजाम इस मामले में भी सही। पर एक बार मनुस्मृति पढ़ाने का फैसला ले लिया है, तो फिर मनुस्मृति पढ़ाई जाए।

दलितों-वलितों, महिलाओं-वहिलाओं के शोर मचाने की सरकार को परवाह नहीं करनी चाहिए। चार दिन शोर करेंगे, बहुत से बहुत दो-चार महीने शोर करेंगे, फिर खुद ही थक-हार कर बैठ जाएंगे। तब तक सरकार भी ध्यान बंटाने के लिए कोई-न-कोई मामला खड़ा कर ही देगी। 

असली बात यह है कि मनुस्मृति पढ़ाने से शुरूआत तो हो। आज बच्चों को पढ़ाएंगे, तभी तो उनके देश के कर्णधार बनने तक, मनुस्मृति के लागू होने तक पहुंच पाएंगे। कहने में अच्छा नहीं लगता, पर सच है कि मनुस्मृति की पूजा करने वालों के राज को बिना शुरूआत के ही बारहवां साल लग गया है। अब शुरुआत के लिए ग्यारह साल भी कोई कम तो नहीं होते हैं। अब भी शुरूआत नहीं होगी, तो कब होगी। आखिर, मनुस्मृति का नंबर कब आएगा!

पर हाय, मोदी जी के राज के बारहवें साल में भी लक्षण अच्छे नहीं हैं। राजधानी की सबसे बड़ी यूनिवर्सिटी में मनुस्मृति पढ़ने-पढ़ाने का सिलसिला शुरू ही नहीं हो पा रहा है। और तो और, संस्कृत विभाग तक में मनुस्मृति की पढ़ाई शुरू नहीं हो पा रही है। बेचारे संस्कृत विभाग ने धर्मशास्त्र स्टडीज के नाम से मनुस्मृति की पढ़ाई शुरू करने का फैसला लिया था, पर विरोधियों ने बे-बात का हंगामा खड़ा कर दिया। जिद पकड़ ली कि बाकी सब विषयों की छोड़ो, संस्कृत विभाग में भी और उसमें भी धर्मशास्त्र स्टडीज तक में, मनुस्मृति की पढ़ाई नहीं होने देंगे। कहते हैं कि धर्मशास्त्र स्टडीज में चाहे रामायण पढ़ा लो, गीता पढ़ा लो, महाभारत पढ़ा लो, आपस्तंभ का, बौधायन का, वशिष्ठ का, किसी का भी धर्मसूत्र पढ़ा लो, चाहे तो नारद, याज्ञवल्क्य की स्मृतियां भी पढ़ा लो, पर मनुस्मृति नहीं पढ़ाई जाएगी। 

हद तो यह है कि मनुस्मृति को पढ़ाने का विरोध वही लोग कर रहे हैं, जो मोदी राज पर पढ़ाई-लिखाई का विरोधी होने के इल्जाम लगाते हैं। बताइए, मोदी जी के आशीर्वाद से किसी किताब पर घोषित-अघोषित रोक लगायी जाए, तो उन पर शिक्षा से लेकर तर्क और बुद्धि-विरोधी होने तक की तोहमत और ये मनुस्मृति की पढ़ाई का रास्ता रोकें तो, डेमोक्रेसी की मांग। इतना दोहरापन कहां से लाते हैं ये मनुस्मृति-भक्तों का विरोध करने वाले!

फिर मनुस्मृति में विरोध करने वाली बात ही क्या है? जो लोग मनुस्मृति को निचली जातियों और औरतों वगैरह का विरोधी बताते हैं, उन्होंने अव्वल तो मनुस्मृति पढ़ी नहीं है और पढ़ी भी है, तो समझी नहीं है। मनुस्मृति क्या है? मनुस्मृति हमारी प्राचीन और इसलिए आदर्श समाज व्यवस्था की संहिता है। मनुस्मृति में समग्रता में हमारे समाज का ताना-बाना है और उसे सुरक्षित रखने का इंतजाम है। उसमें हरेक की जगह है, जो सुस्पष्ट और सुनिश्चित है। बल्कि हरेक की जगह हमेशा के लिए स्थायी या आरक्षित है। जो आरक्षण का झंडा उठाए फिरते हैं, नाहक मनुस्मृति के विरोधी बने फिरते हैं। 

आरक्षण के आइडिया का ऑरिजिन तो मनुस्मृति में ही है। दलित के लिए और औरत के लिए सेवा का कार्य सुनिश्चित है और दासता का जीवन भी। क्षत्रिय के लिए राज करने का कार्य सुरक्षित है और प्रभुता का जीवन। ब्राह्मण के लिए पूजा-पाठ के बदले में वसूली का कार्य और परजीवी जीवन। और वैश्य के लिए कमाई का और सब का पेट पालने का कार्य।

कितनी सुंदर व्यवस्था है और सुचारु रूप से काम करने वाली। हजारों वर्षों से सारे विरोध के बावजूद चल रही है और हिंदू राष्ट्र बन गया, तो मजे में हजारों वर्ष और चलेगी, जब तक हजार वर्ष वाला मोदी जी का रामलला की पहली प्राण प्रतिष्ठा के साथ शुरू हुआ नया युग चलेगा। आरएसएस वालों ने तो पहले ही पहचान लिया था कि मनुस्मृति ही असली भारतीय संविधान है। पर नेहरू जी ने नहीं सुनी। उल्टे, मनुस्मृति जलाने वाले आंबेडकर को संविधान बनाने का जिम्मा दे दिया। नतीजा यह कि साठ-पैंसठ साल यूं ही बर्बाद हो गए। वह तो ग्यारह साल पहले मोदी जी आ गए और मनुस्मृति का महत्व स्वीकार करने का सिलसिला शुरू हुआ। तब भी खास कुछ कहां हो पाया है। अभी तो कालेज-यूनिवर्सिटी में मनुस्मृति की पढ़ाई शुरू कराने पर ही झगड़ा पड़ा हुआ है; संविधान की जगह मनुस्मृति आएगी, कब।

पर हमें तो डर है कि अब भी हवा उल्टी ही चल रही है। ठीक से हंगामा शुरू भी नहीं हुआ था, पर दिल्ली विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर ने एलान कर दिया कि मनुस्मृति नहीं पढ़ाने देंगे। धर्मशास्त्र स्टडीज में भी नहीं, किसी और पाठ्यक्रम में भी नहीं, बस मनुस्मृति नहीं पढ़ाने देंगे। जनाब यह मानकर अकड़े हैं कि उनके अकड़ने को ऊपर वालों का आशीर्वाद है। कह रहे हैं कि हमने तो पहले ही कह दिया था कि मनुस्मृति नहीं पढ़ाई जाएगी। पहले कानून के कोर्स के हिस्से के तौर पर मनुस्मृति पढ़ाने की बात आयी थी, तभी हल्ले-हंगामे के बाद कह दिया गया था कि मनुस्मृति नहीं पढ़ाएंगे। अब फिर कह रहे हैं कि मनुस्मृति नहीं पढ़ाएंगे। आगे के लिए भी अभी से कहे देते हैं कि जब तक ऊपर वालों का इशारा नहीं होगा, आगे भी अगर किसी विभाग ने मनुस्मृति पढ़ाने की कोशिश की, तो नहीं पढ़ाने देंगे।

बारहवें साल में भी अभी मनुस्मृति पढ़ाना शुरू होने का ही भरोसा नहीं है। फिर मनुस्मृति का राज आएगा, कब? बस एक ही बात की तसल्ली है कि कहीं लिखा हुआ नहीं है कि पहले मनुस्मृति पढ़ाना शुरू होगा, उसके बाद उसका राज आएगा। यह भी तो हो सकता है कि राज पहले आ जाए, मनुस्मृति पढ़ने-पढ़ाने का क्या  है , वह तो बाद में भी होता रहेगा। 

(राजेंद्र शर्मा वरिष्ठ पत्रकार और 'लोकलहर' के संपादक हैं।)

मंदिर नहीं, इस्तीफा चाहिए : विष्णु नागर

अभी कुछ दिन पहले मंगोलिया के प्रधानमंत्री को इस्तीफा देना पड़ा। त्यागपत्र देने का कारण हमारे देश की दृष्टि से इतना मामूली था कि इस पर तो चूहा भी भारत के प्रधानमंत्री से इस्तीफा नहीं मांगता। उन प्रधानमंत्री जी का कसूर यह था कि हमारे प्रधानमंत्री के विपरीत वह एक लड़के के पिता हैं। प्रधानमंत्री के साहबजादे हैं, तो जाहिर है, ऐश करना उनका परम कर्तव्य है। तो इस कर्तव्य के निर्वहन के लिए वह अपनी मंगेतर के साथ छुट्टियां मनाने कहीं गए। स्वाभाविक है कि उन्होंने मंगेतर को महंगे-महंगे ढेर सारे तोहफे भी दिलवा दिए। इंटरनेट पर सारा मामला सामने खुल गया (अपने यहां भी खुलता है, मगर बंद होता रहता है)।

बस फिर क्या था, लोग साहबजादे जी की महंगी जीवनशैली के खिलाफ सड़कों पर उतर आए। प्रधानमंत्री से इस्तीफा मांगने लगे। सामान्यत: कोई प्रधानमंत्री कुछ भी हो जाए, मगर इस्तीफा देना नहीं चाहता। उसे मरना मंजूर है, मगर इस्तीफा देना नहीं! इधर संसद में उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव आ गया और गजब यह कि पास भी हो गया! उन बेचारे को त्यागपत्र देना पड़ा। उन्होंने कहा भी कि मेरे त्यागपत्र देने से लोकतंत्र कमजोर हो जाएगा, मगर वहां भी लोकतंत्र की किसे परवाह है! चुनांचे वे भूतपूर्व हो गए। भूतपूर्वों का पुनर्वास उतना ही मुश्किल होता है, जितना कि झुग्गी-बस्ती टूटने पर दिल्ली के गरीबों का!

हमारा लोकतंत्र इतना 'आदर्श ' है कि यहां ऐसी सड़ी-सड़ी बातों को कोई मुद्दा नहीं बनाता। प्रधानमंत्री तो क्या, किसी राज्य के राज्य मंत्री का बेटा भी रोज-रोज अय्याशी करे, रोज नई-नई प्रेमिकाएं बनाए और रोज-रोज उन्हें छोड़े और छोड़ने से पहले उन्हें महंगे से महंगे तोहफे समर्पित करे, तो भी कोई चूं नहीं करेगा।किसी का सिंहासन नहीं डोलेगा, क्योंकि मंत्री होने का मतलब है ऐश करना और अपनों को ऐश करवाना! बाकी बातें बाद में आती हैं और कई बार तो बाद में भी नहीं आतीं! यही जनता की वास्तविक सेवा है, लोकतंत्र की मर्यादा का पालन है।

और मान लो, कोई इस पर चूं कर ही दे, तो चूं करके भी देख ले, लोकतंत्र में चूं करने का अधिकार सबको है। उसके पास जितनी भी ताकत है, सब चूं करने में लगा दें! इसके अलावा कुछ नहीं होगा कि वह जेल में होगा और उस पर ऐसी-ऐसी धाराएं मंत्री जी लगवाएंगे कि जज उसे जमानत पर छोड़ने से डरेगा।जिंदगी भर फिर कभी न चूं करेगा, न चां, क्योंकि भारत में अब सच्चा लोकतंत्र आ चुका है! 2014 से पहले तो यहां तानाशाही थी!

पिछले साल नवंबर में सर्बिया के प्रधानमंत्री के इस्तीफे का कारण बना एक रेलवे स्टेशन की छत का गिर जाना और इस कारण पंद्रह लोगों की जान चली जाना! बताइए ऐसे-ऐसे मामूली कारण हैं दुनिया में इस्तीफा मांगने के और देने के! इसी तरह कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन त्रुदो ने इस्तीफा दे दिया। वजह यह थी कि अगला चुनाव पास था और उनकी लोकप्रियता घटती जा रही थी। पार्टी के अंदर से उनके त्यागपत्र की मांग भी उठ रही थी। इस मांग के आगे त्रुदो जी ने समर्पण कर दिया। अपने यहां भाजपा के अंदर ऐसी मांग उठ सकती है? इसके आगे समर्पण करने की बात तो अकल्पनीय है! सच्चे लोकतंत्र में वही होता है, जो हमारे यहां इन दिनों हो रहा है!

बताइए ऐसी मामूली-मामूली बातों पर वहां इस्तीफे हो जाते हैं। वैसे अफवाह तो हमारे यहां भी फैलाई जा रही थी कि संघ प्रमुख, प्रधानमंत्री जी से उनका इस्तीफा लेने उनके घर गए थे। एक अफवाह यह चल रही है कि 17 सितंबर को जीवन के 75  वर्ष पूरे करने के बाद प्रधानमंत्री नैतिक आधार पर इस्तीफा दे देंगे, क्योंकि इसी आधार पर उन्होंने लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी आदि से इस्तीफे मांग लिये थे और उन्हें किसी अज्ञात मार्गदर्शक मंडल में भेज दिया था। वैसे मोदी जी का 'नैतिक आधार' इतना कमजोर भी नहीं है, जितना इन बुजुर्गों का था! वह सेंत-मेंत में इस्तीफा देनेवालों में नहीं!वे इस्तीफा मांगने वाले का इस्तीफा ले लेते हैं! वैसे भी हमारा लोकतंत्र मात्र लोकतंत्र नहीं है, मदर आफ डेमोक्रेसी है! चाइल्ड, मदर को अपना इस्तीफा सौंप सकता है, मगर मदर, चाइल्ड का इस्तीफा स्वीकार नहीं करती! वह मां होने की जिद पर अड़ी रहती है!

वैसे हमारे यहां इस्तीफा दो, इस्तीफा दो का खेल रोज ही चलता रहता है और चूंकि यह खेल है, इसलिए कभी कोई किसी भी बात पर इस्तीफा नहीं देता! पहले विपक्ष, सरकार में बैठे लोगों से इस्तीफे मांगता था, अब सत्ताधारी लोग विपक्ष के लोगों से इस्तीफे मांगते हैं। मदर आफ डेमोक्रेसी की संतान हैं न हम!

लोग तो मुझसे भी लेखक पद से नैतिक आधार पर इस्तीफा मांगने लगे हैं, क्योंकि मैं लेखक होते हुए  मोदी जी और उनकी सरकार के विरुद्ध लिखता रहता हूं। मुझे बार-बार बताया जाता है कि यह लेखक का काम नहीं है। मगर मैं भी इस्तीफा नहीं दूंगा, क्योंकि मोदी जी भी इस्तीफा नहीं देंगे बल्कि यह असंभव संभव भी हो जाए तो भी मैं इस्तीफा नहीं दूंगा, क्योंकि पद पर बने रहने का लालच सबको होता है! कोई हटा सकता है, तो हटा के देख ले मुझे! हिम्मत हो तो अविश्वास प्रस्ताव लाकर देख ले। पास करा ले, फिर भी अपुन इस्तीफा नहीं देगा!