जन्मदिवस अब्दुल कय्यूम अंसारी: बाबा-ए-क़ौम, देश रत्न, अब्दुल कय्यूम अंसारी को भारत रत्न दिया जाए: एम.डब्ल्यू. अंसारी (आई.पी.एस.)
1 जुलाई का दिन हर साल पिछड़ा समाज बड़े धूमधाम से मनाता है। यह दिन पिछड़े नेता अब्दुल कय्यूम अंसारी रह. का जन्मदिवस है। उनकी राजनीतिक सक्रियता बिहार तक ही सीमित नहीं रही, वे राष्ट्रीय राजनीति में भी लगातार सक्रिय रहे।

1 जुलाई का दिन हर साल पिछड़ा समाज बड़े धूमधाम से मनाता है। यह दिन पिछड़े नेता अब्दुल कय्यूम अंसारी रह. का जन्मदिवस है। उनकी राजनीतिक सक्रियता बिहार तक ही सीमित नहीं रही, वे राष्ट्रीय राजनीति में भी लगातार सक्रिय रहे। उनके जाने से पूरे देश और ख़ासकर पिछड़े समाज और पिछड़ी राजनीति को बहुत बड़ा नुक़सान हुआ और उनके जाने से जो खालीपन आया, वह आज तक नहीं भरा जा सका है।
ग़ौरतलब है कि ये वही अब्दुल कय्यूम अंसारी रह. हैं जिनकी शख़्सियत किसी परिचय की मोहताज नहीं है। आपके कई व्यक्तिगत पहलू थे—जहाँ एक तरफ़ आप पिछड़े तबक़ों के अलंबरदार थे वहीं आप शायर, अदीब, वक्ता और क़ौम का फ़ख़्र भी थे जिन्होंने हर तरह की संकीर्णता के ख़िलाफ़ बग़ावत का झंडा बुलंद किया और पिछड़े मुसलमानों की अलग पहचान के लिए राजनीतिक और सामाजिक आंदोलनों की नींव रखी।
आप भारत विभाजन के सख़्त ख़िलाफ़ थे और इसके लिए आपने जद्दोजहद भी की। यहाँ तक कि आपने जिन्ना का खुला विरोध किया और हर मोर्चे पर मुस्लिम लीग और जिन्ना की क़ियादत को चुनौती दी, लेकिन आज जब बिहार में चुनाव क़रीब हैं, सवाल यह है कि अब्दुल कय्यूम अंसारी के विचारों को और सभी पिछड़ी बिरादरियों को मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में कहाँ खड़ा किया जा रहा है? और आज पिछड़ा समाज कहाँ है और सरकार के हर क्षेत्र में उनकी कितनी हिस्सेदारी है?
आज़ादी के बाद से लेकर आज तक पिछड़े मुसलमानों की क़ियादत में जो खालीपन रहा है, वह 2025 के चुनाव में और ज़्यादा उभरकर सामने आ गया है। बिहार की राजनीति में मुसलमानों की राजनीतिक क़ियादत नज़र ही नहीं आती। शेख़, सैयद, पठान, ख़ान से लेकर अंसारी, मंसूरी, कुरैशी, शाह, फ़क़ीर, सलमानी, मेवाती, गद्दी जैसे पिछड़े तबक़े अब भी सिर्फ़ वोट बैंक बने हुए हैं और उनकी हिस्सेदारी नाम मात्र की है।
ऐसे में जब राजनीतिक पार्टियाँ चुनावी मंचों पर अब्दुल कय्यूम अंसारी का नाम लेती हैं, तो यह सवाल ज़रूर पूछा जाना चाहिए कि क्या सिर्फ़ तस्वीरें लगाना ही काफ़ी है या पिछड़े मुसलमानों को सशक्त भी किया जाएगा?
10 अगस्त 1950 का दिन भारतीय मुसलमानों के इतिहास में एक काला दिन है। इसी दिन वह राष्ट्रपति आदेश जारी किया गया जिसके तहत सिर्फ़ हिंदू दलितों को अनुसूचित जाति (SC) का दर्जा दिया गया। बाद में सिख और बौद्ध धर्म को भी इसमें शामिल किया गया, लेकिन मुस्लिम और ईसाई दलित आज तक इससे वंचित हैं। परिणामस्वरूप लाखों पिछड़े मुसलमान—जैसे चमड़े का काम करने वाले, सफ़ाई कर्मचारी, अंसारी, धोबी, हलवाई, कुरैशी, मोची—अब भी उन सुविधाओं से महरूम हैं जो उन्हीं जैसे दलित हिंदू भाइयों को मिल रही हैं।
यह वह महत्वपूर्ण मुद्दा है जिस पर आज भी सभी राजनीतिक पार्टियाँ चुप हैं। कोई भी पार्टी इस 1950 के आदेश को समाप्त कराने की खुलकर बात नहीं करती, क्योंकि यह मुद्दा राजनीतिक जोखिम से भरा हुआ है। यह भी याद रखा जाना चाहिए कि इस आदेश की वजह से लगभग 131 स्थानों पर मुस्लिम सांसद नहीं बन सकते और कई सौ विधायक (लगभग 1200 से अधिक) की सीटें मुसलमानों से छीन ली गई हैं।
अब्दुल कय्यूम अंसारी ने कहा था:
“हमें सिर्फ़ अपनी क़ौम के मालदार तबक़े की नहीं बल्कि उनके ग़रीब तबक़े की भी फ़िक्र होनी चाहिए।”
यह भी भारत के मुसलमानों का दुःखद पक्ष है कि भारत का वह क्रीम तबक़ा जिसे सबसे निचले तबक़े के लिए काम करना था, आज तक कुछ नहीं कर पाया है और न ही कर रहा है, वरना भारत के मुसलमानों में हर तरह की समानता—शैक्षिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक—होती।
उन्होंने अपने समय में ऑल इंडिया मोमिन कॉन्फ्रेंस और ऐसे ही अन्य प्लेटफ़ॉर्म बनाकर मुस्लिम समाज के निचले तबके को शिक्षा, अर्थव्यवस्था और राजनीतिक चेतना से जोड़ने की कोशिश की। लेकिन आज उनका नाम लेकर जगह-जगह अपनी दुकान चमकाने वाले पिछड़े नेता सिर्फ़ उनकी सालगिरह या बरसी मनाते हैं। उनके राजनीतिक एजेंडे पर कोई काम नहीं हो रहा है और न ही उनके मिशन को आगे बढ़ाने की कोई सोच है।
चूँकि इस साल बिहार में चुनाव हो रहे हैं, ऐसे में यह मौक़ा पिछड़ी बिरादरी के लिए एक सुनहरा मौक़ा बन सकता है कि पिछड़े मुसलमान आबादी के अनुपात में टिकट बाँटने की माँग करें। साथ ही यह माँग भी करें कि सभी बड़ी-छोटी राजनीतिक पार्टियाँ 1950 के राष्ट्रपति आदेश को अपने घोषणापत्र में शामिल करें।
गांधी जी के प्राण बचाने वाले, देश रत्न बख़्त मियाँ उर्फ़ बतख़ मियाँ अंसारी को इंसाफ़ दिया जाए। राष्ट्रपति द्वारा उनके परिवार से किया गया वादा पूरा करते हुए 35 बीघा ज़मीन उन्हें दी जाए। पिछड़े समाज पर होने वाली तमाम नाइंसाफ़ियों को ख़त्म किया जाए। साथ ही पिछड़ी बिरादरियाँ अपनी क़ियादत, अपना संगठन, और अपनी आवाज़ खुद तैयार करें वरना याद रखें कोई भी राजनीतिक पार्टी आपको सिर्फ़ वोट बैंक ही मानेगी।
इसके अलावा सरकार से यह भी माँग की जाए कि अब्दुल कय्यूम अंसारी जैसी महान शख़्सियत की सेवाओं के सम्मान में उन्हें भारत के सर्वोच्च सम्मान “भारत रत्न” से नवाज़ा जाए, वे वास्तव में इसके हक़दार हैं। उनके नाम पर एक केंद्रीय विश्वविद्यालय स्थापित किया जाए। सड़कें/रेलवे स्टेशन आदि उनके नाम से समर्पित किए जाएँ और उनकी जीवनी को पाठ्यपुस्तकों में शामिल किया जाए।
आज अगर हम सच में अब्दुल कय्यूम अंसारी को याद करना चाहते हैं, तो उनके विचारों, विज़न और एजेंडे को फिर से ज़िंदा करना होगा। पिछड़े मुसलमानों को अपने वजूद का सबूत देना होगा—और यह सबूत सिर्फ़ वोट से नहीं, बल्कि क़ियादत से होगा। बिहार की धरती ने अब्दुल कय्यूम अंसारी जैसे महान नेता को जन्म दिया। अब समय है कि उसी धरती से एक नई क़ियादत खड़ी हो, जो उनके मिशन को पूरा करे, और पिछड़े समाज को राजनीति के हाशिए से उठाकर केंद्र तक ले जाए। यही अब्दुल कय्यूम अंसारी और उनके जैसे सभी नेताओं को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।