गुलामगिरी: जहां न्याय की अवमानना होती है... वहां न तो मनुष्य सुरक्षित रह सकते हैं, न ही संपत्ति –फ्रैड्रिक डगलस
जहां न्याय की अवमानना होती है, जहां जहालत और गरीबी है, जहां कोई भी समुदाय यह महसूस करे कि समाज सिवाय उसके दमन, लूट तथा अवमानना के संगठित षड्यंत्र के कुछ नहीं है — वहां न तो मनुष्य सुरक्षित रह सकते हैं, न ही संपत्ति। – फ्रैड्रिक डगलस
ओमप्रकाश कश्यप
जहां न्याय की अवमानना होती है, जहां जहालत और गरीबी है, जहां कोई भी समुदाय यह महसूस करे कि समाज सिवाय उसके दमन, लूट तथा अवमानना के संगठित षड्यंत्र के कुछ नहीं है — वहां न तो मनुष्य सुरक्षित रह सकते हैं, न ही संपत्ति। – फ्रैड्रिक डगलस
वर्ष 1873 तक शूद्रों-अतिशूद्रों की शिक्षा के लिए शुरू किए गए अभियान को 25 वर्ष पूरे हो चुके थे। उनके स्कूलों से निकले शूद्र-अतिशूद्र विद्यार्थी सामाजिक जीवन में आने लगे थे। वे तर्क करते थे और दिलो-दिमाग से स्वतंत्र थे। अब फुले को लगा कि ब्राह्मणों के सांस्कृतिक प्रभुत्व के विरुद्ध बड़ा आंदोलन खड़ा करने का समय आ चुका है
गुणीजन कहते आए हैं, जवाब से सवाल ज्यादा मुश्किल होता है। सवाल समझ में आ जाए तो जवाब खोजने में देर नहीं लगती। दो सौ साल पहले बहुजनों का सांस्कृतिक-सामाजिक शोषण आज के मुकाबले कहीं अधिक था। किंतु उसके विरोध में न कोई चेतना थी, न आवाज और ना ही उनके हालात को लेकर कोई सवाल उनके दिमाग में उठते थे। वे शोषण-उत्पीड़न के साथ जीना सीख चुके दीन, दलित, सर्वहारा थे। वे मानते थे कि वे वैसे ही हैं, जैसा उन्हें होना चाहिए था। उन्हें समाज से कोई शिकायत न थी। शिकायत थी तो ब्राह्मणों द्वारा थोपे गए ईश्वर से, जिसे वे भ्रमवश अपना मान बैठे थे। जीवन की तमाम हताशाओं के बीच ईश्वर नामक काल्पनिक सत्ता ही उनकी एकमात्र उम्मीद थी। वे इस बात से अनजान थे कि धर्म और ईश्वर उन्हें गुलाम बनाए रखने का षड्यंत्र हैं।
बावजूद इसके कि मेहनत-मशक्कत के सारे काम उनके जिम्मे थे, बदले में नकद मजदूरी तो दूर, समुचित खाद्यान्न तक नहीं मिलता था। अनेक को तो पीढ़ी-दर-पीढ़ी बेगार करनी पड़ती थी। सन 1848 में कार्ल मार्क्स (5 मई, 1818-14 मार्च, 1883) ने ‘कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो’ के जरिए जब यह आह्वान किया कि ‘दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ’ तब भारत के शूद्रों-अतिशूद्रों, छूत-अछूतों में उसकी कोई प्रतिक्रिया न हुई। उस समय उन्होंने मान लिया कि वे मजदूर थोड़े ही हैं। वे तो लोहार, बढ़ई, चमार, कुम्हार, तेली, तमोली, धोबी, मल्लाह वगैरह हैं। यह मानते हुए कि शूद्रों-अतिशूद्रों की असली समस्या उनकी अशिक्षा है और शिक्षा ही उन्हें अज्ञानता के दलदल से बाहर निकाल सकती है, जोतीराव फुले (11 अप्रैल, 1827 – 28 नवंबर, 1890) ने भी उसी वर्ष शिक्षा आंदोलन की शुरुआत की थी। उस समय उनकी उम्र मात्र 21 वर्ष थी। उसके बाद तो मात्र 3 वर्षों में उन्होंने एक के बाद एक 18 स्कूल खड़े कर दिए। अगले 25 वर्षों तक वे शिक्षा के जरिए अज्ञान के अंधकार को मिटाने में लगे रहे। उन्होंने जातिवाद को संरक्षण देने, धर्म के नाम पर तंत्र-मंत्र, जादू-टोना, पाखंड और पापाचार फैलाने के लिए ब्राह्मणों को धिक्कारा। उन्होंने कहा कि ‘नकली धर्मग्रंथों के माध्यम से ब्राह्मणों ने यह दिखाने की चेष्टा की है कि उन्हें प्राप्त विशेषाधिकार ईश्वरीय देन हैं।’ पुरोहित वर्ग के आडंबरों और प्रपंचों पर कटाक्ष करते हुए उन्होंने ‘तृतीय रतन’ (1855) नाटक लिखा। निचली जातियों में आत्मसम्मान का भाव पैदा करने के लिए ‘पोवाड़ा : छत्रपति शिवाजी भौंसले का’ (1869) की रचना की। वर्ष 1869 में ही ‘ब्राह्मणों की चालाकी’ तथा ‘पोवाड़ा : शिक्षा विभाग के अध्यापक का’ का प्रकाशन हुआ। पहली कृति ब्राह्मणवादी षड्यंत्रों पर मुक्त बयान जैसी थी। दूसरी पुस्तक में शूद्रों और अतिशूद्रों को पढ़ाने में ब्राह्मण अध्यापकों की आनाकानी तथा शिक्षा व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार पर प्रहार किया गया था। ये सभी कार्य महत्त्वपूर्ण होने के बावजूद एक बड़े आंदोलन की पूर्वपीठिका जैसे थे।
वर्ष 1873 तक शूद्रों-अतिशूद्रों की शिक्षा के लिए शुरू किए गए अभियान को 25 वर्ष पूरे हो चुके थे। उनके स्कूलों से निकले शूद्र-अतिशूद्र विद्यार्थी सामाजिक जीवन में आने लगे थे। वे तर्क करते थे और दिलो-दिमाग से स्वतंत्र थे। अब फुले को लगा कि ब्राह्मणों के सांस्कृतिक प्रभुत्व के विरुद्ध बड़ा आंदोलन खड़ा करने का समय आ चुका है। जातिप्रथा के कलंक से मुक्ति के लिए शूद्रों-अतिशूद्रों को उनके प्राचीन अतीत के बारे में बताया जाना आवश्यक है। यह बताया जाना आवश्यक है कि पुराणों, महाकाव्यों और दूसरे धर्मग्रंथों के माध्यम से ब्राह्मणों ने उनके इतिहास और संस्कृति का विरूपण किया है। साथ ही यह भी कि उनके पूर्वज भी एक गौरवशाली अतीत के स्वामी रहे हैं। उस एहसास को जीने के लिए ब्राह्मण संस्कृति के चंगुल से बाहर आना आवश्यक है। उन धर्मग्रंथों, रीति-रिवाजों और सांस्कृतिक प्रतीकों को नकारना आवश्यक है जो उन्हें दूसरे या तीसरे दर्जे का नागरिक बनाते हैं। बगैर उनके बौद्धिक-सांस्कृतिक अधिपत्य के बाहर आए, उनकी समाजार्थिक स्वतंत्रता असंभव है। ‘सांस्कृतिक अधिपत्य’ का विचार मार्क्स की ओर से आया था। उसे विस्तार दिया था अंतोनियो ग्राम्शी (22 जनवरी 1891 – 27 अप्रैल, 1937) ने। उनका कहना था कि मनुष्य को बौद्धिक दास बनाए रखने के लिए सांस्कृतिक प्रतीकों, मिथकों आदि को जिस प्रकार मनुष्यता की संपूर्ण पहचान के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, उसकी काट समानांतर संस्कृति के निर्माण एवं विकास द्वारा ही संभव है।’ ‘गुलामगिरी’ (1873) के माध्यम से फुले ने यही किया था। वह भी ग्राम्शी से करीब चार दशक पहले। अपने विचारों और कार्य को सशक्त आंदोलन का रूप देने के लिए, 1873 में ही उन्होंने ‘सत्यशोधक समाज’ की स्थापना की थी।
ब्राह्मणवादी धर्म की आड़ में : गुलामगिरी
‘कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो’ की तरह ‘गुलामगिरी’ भी छोटी-सी पुस्तक है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि दुनिया को बदलने के लिए भारी-भरकम महाकाव्यों की जरूरत नहीं पड़ती। नीयत अच्छी हो तो चंद शब्द भी अपेक्षित प्रभाव उत्पन्न कर सकते हैं। ‘गुलामगिरी’ को उन्होंने ‘संयुक्त राज्य [अमेरिका] के सदाचारी जनों, जिन्होंने गुलामों को दासता से मुक्त करने के कार्य में उदारता, निष्पक्षता और परोपकार वृत्ति का प्रदर्शन किया था, को सम्मानार्थ समर्पित’ किया था। भारत में ‘सांस्कृतिक आधिपत्य’ विरोधी संघर्ष के इतिहास में इस पुस्तक का ठीक वही स्थान है, जो दुनिया-भर के मजदूर आंदोलनों के इतिहास में ‘कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो’ का है। मराठी में लिखी गई इस पुस्तक के प्रथम संस्करण का मूल्य 12 आना था। मगर निर्धनों तथा शूद्रातिशूद्रों को यह पुस्तक आधी कीमत पर उपलब्ध कराई जाती थी। इसके पीछे जोतीराव फुले की दूरदृष्टि थी। उद्देश्य था कि जो गरीब तथा शूद्र-अतिशूद्र ‘गुलामगिरी’ को पढ़ना चाहते हैं, उनके लिए पैसे की कमी बाधा न बने।