Article : दिल्ली को सल्तनत बनाने वाला शासक शेरशाह सूरी इतिहास के पन्नों में दर्ज एक नाम
Article : शेरशाह सूरी इतिहास के पन्नों में दर्ज वह नाम है, जिसे उसकी वीरता, अदम्य साहस और परिश्रम के बल पर दिल्ली के सिंहासन पर क़ब्ज़ा
Article : शेरशाह सूरी इतिहास के पन्नों में दर्ज वह नाम है, जिसे उसकी वीरता, अदम्य साहस और परिश्रम के बल पर दिल्ली के सिंहासन पर क़ब्ज़ा करने के लिए जाना जाता है. उन्होंने चौसा की लड़ाई में हुमायूं जैसे शासक को न सिर्फ धूल चटाई बल्कि, आगे चलकर उसे मैदान छोड़कर भागने के लिए मजबूर कर दिया था. शेर खां की उपाधि पाने वाले इस शासक के इरादे कितने फौलादी रहे होंगे, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि दक्षिण बिहार के सूबेदार बहार खां लोहानी के आदेश पर उसने शेर के जबड़े को फाड़कर दो भागोंं में बांट दिया था. तो चलिए आपको बताते हैं इस वीर शासक से जुड़े 13 दिलचस्प पहलू :-
इस तरह फरीद बन गया ‘शेर खां‘ ✔
शेरशाह सूरी के बचपन का नाम फरीद खान हुआ करता था. वह युवावस्था में अमीर बहार खान लोहानी की सेवा में रहा करते थे. इसी दौरान एक बार बहार खान ने उसे एक शेर का शिकार करने को कहा, जिसे पूरा करने कि लिए फरीद ने एक पल भी नहीं सोचा और शेर से लड़ते हुए उसके जबड़े को दो हिस्सों में फाड़कर अलग कर दिया था. उनकी इस वीरता से बहार खान बहुत प्रभावित हुआ और उसने फरीद को शेर खां की उपाधि से सम्मानित किया.
हुनर ने पैदा किए दुश्मन और… ✅
शेरशाह की तेजी से बढ़ती लोकप्रियता से लोहानी शासन के बड़े लोग उनके दुश्मन बन बैठे. इसी कारण वह तरह-तरह के उपाय सोचने लगे, ताकि किसी तरह से उन्हें राज्य से शासन से बाहर किया जा सके. अतत: वह सफल हुए और उन्हें लोहानी शासन के दरबार से बाहर निकाल दिया गया. इसके बाद वह मुगल शासक बाबर के दरबार में चले गए और वहां अपनी सेवा के दम पर जागीर भी हासिल की.
पैनी नज़र के उस्ताद शेरशाह ↩
लोहानी शासन के दरबार से शेरशाह बाहर जरुर हुए थे, लेकिन उनकी नज़र हमेशा लोहानी की सत्ता पर थी. वह जानते थे कि अमीर बहार खान लोहानी के बाद कोई भी काबिल व्यक्ति नहीं है, जो उसे बढ़ा सके. ऐसे में वह पूरे शासन को अपनी गिरफ्त में ले सकते थे. इसलिए उन्होंने बाबर की सेवा के दौरान मुगल शासक और उनकी सेनाओं की ताकत और कमियों का आंकलन भी करते रहे. उन्हें जब यकीन हो गया कि वह तैयार हैं तो पहले मुगलों को छोड़कर वह लोहानी के मालिक बने और बाद में मुगलों के गले के हड्डी.
चौसा के युद्ध में हुमायूं को धूल चटाई ????
बंगाल एक बहुत ही महत्वपूर्ण जगह मानी जाती थी और उसे जीतने के लिए हुमायूं और शेरशाह दोनों ही बेताब थे. इसी के चलते दोनों के बीच जंग छिड़ गई. दोनों के बीच लड़े गए इस युद्ध का नाम था चौसा का युद्ध, जिसमें सूरी कुछ इस तरह लड़े की हुमायूं जैसे शासकों को हथियार डालने पड़ गए थे. इस ऐतिहासिक जीत के बाद सूरी को एक और नाम से नवाज़ा गया वह था ‘फरीद-अल-दिन शेर शाह’.
जाते-जाते हुमायूं ने माना सूरी का लोहा ????
कहते हैं कि हुमायूं सूरी का सबसे बड़ा दुश्मन था, पर मरते समय हुमायूं ने भी सूरी का लोहा मान ही लिया था. माना जाता है कि, जब हुमायूं अपनी मौत के करीब था, उस समय उसने कहा कि सूरी ‘उस्ताद-ए-बादशाह’ यानी बादशाहों के उस्ताद हैं. इससे स्पष्ट होता है कि भले ही हुमायूं की आंख में सूरी हमेशा खटकते रहे, पर भीतरी मन से वह भी उनकी काबिलियत के मुरीद थे.
प्रजाहित को सर्वोपरि रखा ????
एक शासक के रूप में शेरशाह अपने पूर्ववर्ती शासकों में सबसे आगे माने जाते हैं. माना जाता है कि अकबर तथा उसके बाद के सभी बादशाहों ने सूरी की शासन-नीतियों को ही अपनाया. भारतीय साम्राज्य में उसने जनता की इच्छा के मुताबिक काम किए. स्वेच्छाचारी होते हुए भी उसने प्रजाहित को सर्वोपरि रखा.
युद्ध ही नहीं वास्तुकला में भी थे माहिर ????
सूरी सिर्फ एक अच्छे योद्धा ही नहीं, बल्कि एक अच्छे वास्तुकार भी थे. अपने जीवनकाल में उन्होंने कई बार वास्तुकला का काम किया पर झेलम में बने उनके रोहतास किले को उनके द्वारा की गयी सबसे अच्छी कारीगरी कहते हैं. शेर शाह के इस किले को बनने में आठ साल का वक़्त लग गया था. दिल्ली में स्थित पुराना किला का नए तरीके से निर्माण करने में भी सूरी का हाथ था.
एक सफल शासक के रुप में लोकप्रिय ????
वह मध्यकालीन भारत के सफल शासकों में से एक थे. अपनी न्यायप्रियता के कारण वह अपनी सेना और प्रजा दोनों का विश्वास जीतने में कामयाब रहे थे. कहा जाता है कि वह अपने कर्मचारियों को दो से तीन साल बाद तबादला कर देते थे, ताकि कोई भी भ्रष्टाचार न फैला सके. उनकी न्यायप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उसने सेना से कह रखा था कि युद्ध के रास्ते में पड़ने वाली फसल को नष्ट न किया जाए.
भारतीय पोस्टल विभाग की नींव डाली ⛽
प्रचलित कहानियों की मानें तो पहली बार ‘रुपया’ का चलन शेरशाह सूरी ने ही शुरु किया था. जिस समय वह सत्ता में आये उस समय ‘टनका’ नाम की मुद्रा का चलन था. सोने व चांदी के सिक्कों का चलन शुरू करने के साथ शेरशाह सूरी ने ही भारतीय पोस्टल विभाग को भी अपने शासनकाल में विकसित किया था.
पाटलीपुत्र का नाम बदलकर पटना किया ????
शेरशाह सूरी ने बाद में हिमायूं दिना पनाह शहर को विकसित कर उसका नाम शेरगढ़ रखा और पाटलीपुत्र का नाम पटना रखा. बाद में ग्रांट ट्रंक रोड को चित्तागोंग से विस्तृत करते हुए पश्चिमी भारत से अफगानिस्तान के काबुल तक ले गये और देशों के रास्तों को आपस में जोड़ा.
‘ग्रैंड ट्रंक रोड’ का कराया था निर्माण ????
सूरी ने अपने शासनकाल में एक बहुत ही बड़ी व विशाल रोड का निर्माण किया था, जिसका आज तक उदाहरण दिया जाता है. सूरी चाहते थे कि एक ऐसा रास्ता बने, जोकि दक्षिणी भारत को उत्तर के राज्यों से जोड़ सके. उनकी यह रोड बांग्लादेश से होती हुई दिल्ली और वहां से काबुल तक होकर जाती थी. उनकी बनाई इस रोड़ पर कोई भी सफ़र कर सकता था. फिर चाहे वह हिन्दू हो या मुस्लिम. रोड का सफ़र आरामदायक बनाने के लिए सूरी ने जगह-जगह पर कुंए और विश्रामगृहों का निर्माण भी करवाया था. सूरी की बनाई वह रोड आज भी है, जिसे हम ‘ग्रैंड ट्रंक रोड’ के नाम से जानते हैं.
47 हिस्सों की सरकार का गठन ♐
माना जाता है कि शेर शाह ने अपने साम्राज्य को 47 हिस्सों में बांट दिया था, ताकि वह सुचारू रूप से काम कर सकें. इन 47 हिस्सों को सूरी ने सरकार का नाम दिया था. सूरी की इस सरकार का काम भी हमारी आज के जमाने वाली सरकार के जैसे ही था. यह 47 सरकार फिर छोटे जिलों में बांटी गयी, जिन्हें परगना कहा गया. हर सरकार को दो लोग संभालते थे, जिनमें एक सेना अध्यक्ष होता था और दूसरा कानून का रक्षक.
मरते-मरते जीता कालिंजर का किला ????
1545 में कालिंजर फतह के दौरान शेरशाह सूरी की मृत्यु हो गई. यहां बारूद में विस्फोट हो गया. इस हादसे में शेरशाह सूरी अपनी अंतिम सांसे ले रहे थे, पर उनका जज्बा चरम पर था. वह घायल हालत में भी दुश्मन का मुकाबला करते रहे. कहानियां बताती हैं कि जाते-जाते उन्होंने कालिंजर के किले पर अपनी जीत का यशगान लिख दिया था.
यह थे शेरशाह सूरी से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण पहलू, जो उनकी अदम्य क्षमता को दर्शाते हैं. इतिहास में भले ही अकबर जैसे बड़े शासकों की तुलना में उन्हें कम मान मिलता हो, पर सही मायने में सूरी का रुतबा उनसे किसी भी मामले में कम नहीं रहा. शेरशाह सूरी इतिहास के पन्नों में दर्ज वह नाम है, जिसे उसकी वीरता, अदम्य साहस और परिश्रम के बल पर दिल्ली के सिंहासन पर क़ब्ज़ा करने के लिए जाना जाता है. उन्होंने चौसा की लड़ाई में हुमायूं जैसे शासक को न सिर्फ धूल चटाई बल्कि, आगे चलकर उसे मैदान छोड़कर भागने के लिए मजबूर कर दिया था. शेर खां की उपाधि पाने वाले इस शासक के इरादे कितने फौलादी रहे होंगे, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि दक्षिण बिहार के सूबेदार बहार खां लोहानी के आदेश पर उसने शेर के जबड़े को फाड़कर दो भागोंं में बांट दिया था. तो चलिए आपको बताते हैं इस वीर शासक से जुड़े 13 दिलचस्प पहलू :-
इस तरह फरीद बन गया ‘शेर खां‘ ✔
शेरशाह सूरी के बचपन का नाम फरीद खान हुआ करता था. वह युवावस्था में अमीर बहार खान लोहानी की सेवा में रहा करते थे. इसी दौरान एक बार बहार खान ने उसे एक शेर का शिकार करने को कहा, जिसे पूरा करने कि लिए फरीद ने एक पल भी नहीं सोचा और शेर से लड़ते हुए उसके जबड़े को दो हिस्सों में फाड़कर अलग कर दिया था. उनकी इस वीरता से बहार खान बहुत प्रभावित हुआ और उसने फरीद को शेर खां की उपाधि से सम्मानित किया.
हुनर ने पैदा किए दुश्मन और… ✅
शेरशाह की तेजी से बढ़ती लोकप्रियता से लोहानी शासन के बड़े लोग उनके दुश्मन बन बैठे. इसी कारण वह तरह-तरह के उपाय सोचने लगे, ताकि किसी तरह से उन्हें राज्य से शासन से बाहर किया जा सके. अतत: वह सफल हुए और उन्हें लोहानी शासन के दरबार से बाहर निकाल दिया गया. इसके बाद वह मुगल शासक बाबर के दरबार में चले गए और वहां अपनी सेवा के दम पर जागीर भी हासिल की.
पैनी नज़र के उस्ताद शेरशाह ↩
लोहानी शासन के दरबार से शेरशाह बाहर जरुर हुए थे, लेकिन उनकी नज़र हमेशा लोहानी की सत्ता पर थी. वह जानते थे कि अमीर बहार खान लोहानी के बाद कोई भी काबिल व्यक्ति नहीं है, जो उसे बढ़ा सके. ऐसे में वह पूरे शासन को अपनी गिरफ्त में ले सकते थे. इसलिए उन्होंने बाबर की सेवा के दौरान मुगल शासक और उनकी सेनाओं की ताकत और कमियों का आंकलन भी करते रहे. उन्हें जब यकीन हो गया कि वह तैयार हैं तो पहले मुगलों को छोड़कर वह लोहानी के मालिक बने और बाद में मुगलों के गले के हड्डी.
चौसा के युद्ध में हुमायूं को धूल चटाई ????
बंगाल एक बहुत ही महत्वपूर्ण जगह मानी जाती थी और उसे जीतने के लिए हुमायूं और शेरशाह दोनों ही बेताब थे. इसी के चलते दोनों के बीच जंग छिड़ गई. दोनों के बीच लड़े गए इस युद्ध का नाम था चौसा का युद्ध, जिसमें सूरी कुछ इस तरह लड़े की हुमायूं जैसे शासकों को हथियार डालने पड़ गए थे. इस ऐतिहासिक जीत के बाद सूरी को एक और नाम से नवाज़ा गया वह था ‘फरीद-अल-दिन शेर शाह’.
जाते-जाते हुमायूं ने माना सूरी का लोहा ????
कहते हैं कि हुमायूं सूरी का सबसे बड़ा दुश्मन था, पर मरते समय हुमायूं ने भी सूरी का लोहा मान ही लिया था. माना जाता है कि, जब हुमायूं अपनी मौत के करीब था, उस समय उसने कहा कि सूरी ‘उस्ताद-ए-बादशाह’ यानी बादशाहों के उस्ताद हैं. इससे स्पष्ट होता है कि भले ही हुमायूं की आंख में सूरी हमेशा खटकते रहे, पर भीतरी मन से वह भी उनकी काबिलियत के मुरीद थे.
प्रजाहित को सर्वोपरि रखा ????
एक शासक के रूप में शेरशाह अपने पूर्ववर्ती शासकों में सबसे आगे माने जाते हैं. माना जाता है कि अकबर तथा उसके बाद के सभी बादशाहों ने सूरी की शासन-नीतियों को ही अपनाया. भारतीय साम्राज्य में उसने जनता की इच्छा के मुताबिक काम किए. स्वेच्छाचारी होते हुए भी उसने प्रजाहित को सर्वोपरि रखा.
युद्ध ही नहीं वास्तुकला में भी थे माहिर ????
सूरी सिर्फ एक अच्छे योद्धा ही नहीं, बल्कि एक अच्छे वास्तुकार भी थे. अपने जीवनकाल में उन्होंने कई बार वास्तुकला का काम किया पर झेलम में बने उनके रोहतास किले को उनके द्वारा की गयी सबसे अच्छी कारीगरी कहते हैं. शेर शाह के इस किले को बनने में आठ साल का वक़्त लग गया था. दिल्ली में स्थित पुराना किला का नए तरीके से निर्माण करने में भी सूरी का हाथ था.
एक सफल शासक के रुप में लोकप्रिय ????
वह मध्यकालीन भारत के सफल शासकों में से एक थे. अपनी न्यायप्रियता के कारण वह अपनी सेना और प्रजा दोनों का विश्वास जीतने में कामयाब रहे थे. कहा जाता है कि वह अपने कर्मचारियों को दो से तीन साल बाद तबादला कर देते थे, ताकि कोई भी भ्रष्टाचार न फैला सके. उनकी न्यायप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उसने सेना से कह रखा था कि युद्ध के रास्ते में पड़ने वाली फसल को नष्ट न किया जाए.
भारतीय पोस्टल विभाग की नींव डाली ⛽
प्रचलित कहानियों की मानें तो पहली बार ‘रुपया’ का चलन शेरशाह सूरी ने ही शुरु किया था. जिस समय वह सत्ता में आये उस समय ‘टनका’ नाम की मुद्रा का चलन था. सोने व चांदी के सिक्कों का चलन शुरू करने के साथ शेरशाह सूरी ने ही भारतीय पोस्टल विभाग को भी अपने शासनकाल में विकसित किया था.
पाटलीपुत्र का नाम बदलकर पटना किया ????
शेरशाह सूरी ने बाद में हिमायूं दिना पनाह शहर को विकसित कर उसका नाम शेरगढ़ रखा और पाटलीपुत्र का नाम पटना रखा. बाद में ग्रांट ट्रंक रोड को चित्तागोंग से विस्तृत करते हुए पश्चिमी भारत से अफगानिस्तान के काबुल तक ले गये और देशों के रास्तों को आपस में जोड़ा.
‘ग्रैंड ट्रंक रोड’ का कराया था निर्माण ????
सूरी ने अपने शासनकाल में एक बहुत ही बड़ी व विशाल रोड का निर्माण किया था, जिसका आज तक उदाहरण दिया जाता है. सूरी चाहते थे कि एक ऐसा रास्ता बने, जोकि दक्षिणी भारत को उत्तर के राज्यों से जोड़ सके. उनकी यह रोड बांग्लादेश से होती हुई दिल्ली और वहां से काबुल तक होकर जाती थी. उनकी बनाई इस रोड़ पर कोई भी सफ़र कर सकता था. फिर चाहे वह हिन्दू हो या मुस्लिम. रोड का सफ़र आरामदायक बनाने के लिए सूरी ने जगह-जगह पर कुंए और विश्रामगृहों का निर्माण भी करवाया था. सूरी की बनाई वह रोड आज भी है, जिसे हम ‘ग्रैंड ट्रंक रोड’ के नाम से जानते हैं.
47 हिस्सों की सरकार का गठन ♐
माना जाता है कि शेर शाह ने अपने साम्राज्य को 47 हिस्सों में बांट दिया था, ताकि वह सुचारू रूप से काम कर सकें. इन 47 हिस्सों को सूरी ने सरकार का नाम दिया था. सूरी की इस सरकार का काम भी हमारी आज के जमाने वाली सरकार के जैसे ही था. यह 47 सरकार फिर छोटे जिलों में बांटी गयी, जिन्हें परगना कहा गया. हर सरकार को दो लोग संभालते थे, जिनमें एक सेना अध्यक्ष होता था और दूसरा कानून का रक्षक.
मरते-मरते जीता कालिंजर का किला ????
1545 में कालिंजर फतह के दौरान शेरशाह सूरी की मृत्यु हो गई. यहां बारूद में विस्फोट हो गया. इस हादसे में शेरशाह सूरी अपनी अंतिम सांसे ले रहे थे, पर उनका जज्बा चरम पर था. वह घायल हालत में भी दुश्मन का मुकाबला करते रहे. कहानियां बताती हैं कि जाते-जाते उन्होंने कालिंजर के किले पर अपनी जीत का यशगान लिख दिया था.
यह थे शेरशाह सूरी से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण पहलू, जो उनकी अदम्य क्षमता को दर्शाते हैं. इतिहास में भले ही अकबर जैसे बड़े शासकों की तुलना में उन्हें कम मान मिलता हो, पर सही मायने में सूरी का रुतबा उनसे किसी भी मामले में कम नहीं रहा.