भारत की बेटी और हिंदी की बहन उर्दू के साथ सभी राजनीतिक पार्टियों का पक्षपाती रवैया उजागर : एम.डब्ल्यू. अंसारी (आई.पी.एस)

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भारत की बेटी और हिंदी की बहन कही जाने वाली, यूएनओ की आधिकारिक भाषा, भारत को एक धागे में जोड़ने वाली प्यारी भाषा उर्दू के साथ सौतेला व्यवहार अब आम बात हो गई है। अतीत में भी राजनीतिक रैलियों, यात्राओं, कार्यक्रमों और चुनावी विज्ञापनों से उर्दू गायब रही है, लेकिन ताजा मामला देश की राजधानी दिल्ली के चुनावों से जुड़ा है।

गौरतलब है कि दिल्ली में विधानसभा चुनाव ( वोटिंग ) 5 फरवरी को होंगे और परिणामों की घोषणा 8 फरवरी को की जाएगी, जिसकी प्रचार प्रक्रिया जोर-शोर से चल रही है। दिल्ली का शायद ही कोई ऐसा कोना / इलाका होगा जहां अंग्रेजी, हिंदी और पंजाबी/गुरुमुखी में ढेर सारे विज्ञापन न लगे हों, लेकिन राजधानी दिल्ली में उर्दू को दूसरी सरकारी भाषा का दर्जा प्राप्त होने के बावजूद सत्तारूढ़ पार्टी सहित विपक्ष की सभी पार्टियों के चुनावी विज्ञापन और प्रचार सामग्री से उर्दू गायब है। बीजेपी से तो क्या ही उम्मीद की जा सकती है, लेकिन दिल्ली में सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी और कांग्रेस पार्टी तथा बाहर से आकर खेल बिगाड़ने वाली छोटी-छोटी पार्टियों का भी रवैया उर्दू के प्रति पक्षपाती और उदासीन ही रहा है।

राजनीतिक पार्टियों की तरफ से अब तक चुनावी प्रचार के लिए जो भी पोस्टर और बैनर लगाए गए हैं, उनमें शायद ही कोई उर्दू में हो। और अगर कहीं हैं भी तो मात्र नाममात्र के लिए, वो भी केवल पुराने दिल्ली, ओखला, जामिया नगर जाकिर नगर जैसे इलाकों में, जहां उर्दू का थोड़ा-बहुत प्रभाव है। वरना उर्दू लिपि से अधिकतर पोस्टर और बैनर खाली ही हैं। राजधानी दिल्ली में सड़कों और चौराहों पर उर्दू में जो नाम लिखे गए हैं, वे भी बेहद घटिया लिपि में हैं। यहां तक कि मुस्लिम बहुल विधानसभा क्षेत्रों के चुनावी सभाओं में भी पोस्टर और बैनर से उर्दू गायब है । सारी प्रचार सामग्री या तो रोमन में है या हिंदी में। उर्दू हर जगह से नदारद है।

इसके अलावा जितने भी उर्दू प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हैं, उन्हें या तो विज्ञापन दिए ही नहीं जाते और दिए भी जाते हैं तो गैर-उर्दू भाषा में होते हैं, जो बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है।

अगर बात करें उर्दू मीडिया और उर्दू प्रेमियों की, तो ये लोग भी अपने अधिकारों के लिए आवाज नहीं उठाते । अन्य भाषाओं के मीडिया को समय-समय पर सरकारी विज्ञापन दिए जाते हैं, लेकिन उर्दू मीडिया को इससे वंचित रखा जाता है और जो विज्ञापन दिए भी जाते हैं, वे उर्दू लिपि में नहीं होते, जबकि उर्दू मीडिया की रोजी-रोटी उर्दू भाषा से जुड़ी है। सभी उर्दू मीडिया को सरकार से यह मांग करनी चाहिए कि जिस तरह अन्य भाषाओं में विज्ञापन जारी किए जाते हैं, उसी तरह उर्दू भाषा में भी विज्ञापन जारी किए जाएं।

गौर करने वाली बात यह है कि दिल्ली विधानसभा चुनाव में भारत की बेटी और हिंदी की बहन उर्दू को पूरी तरह से नजरअंदाज किया जा रहा है। उर्दू के प्रति सभी राजनीतिक पार्टियों का रुख एक जैसा ही है। चाहे बीजेपी हो, कांग्रेस हो, आम आदमी पार्टी हो या अन्य कोई पार्टी, सबका रवैया एक जैसा है।

यह बात याद रखनी चाहिए कि उर्दू किसी खास धर्म या जाति की भाषा नहीं है, बल्कि यह भारत की भाषा है, भारत में ही पली-बढ़ी है। उर्दू को केवल मुसलमानों के साथ जोड़कर गलत प्रचार किया जा रहा है, जिसके चलते यह प्यारी भाषा पक्षपात का शिकार हो रही है।

ऐसे में सवाल यह उठता है कि ये राजनीतिक पार्टियां आखिर क्या साबित करना चाहती हैं? इसके अलावा, उम्मीदवारों ने भी अब तक इस पर कोई आवाज नहीं उठाई है। सभी उम्मीदवारों को अपनी लड़ाई खुद लड़नी चाहिए और आवाज बुलंद करनी चाहिए।

यदि वाकई यह भूल हुई है, तो राजनीतिक पार्टियों को अपनी इस गलती के लिए जनता से माफी मांगनी चाहिए और इसे सुधारना चाहिए। अन्यथा, इसके परिणाम चुनाव के दौरान देखने को मिलेंगे। उर्दू से प्रेम करने वाले सभी दिल्ली और आस-पास के लोग ऐसी पार्टियों से दूरी बना लेंगे। इसके अलावा, संविधान में उल्लेखित भाषाओं और दिल्ली की दूसरी सरकारी भाषा के साथ इस दोहरे रवैये से देश की गंगा-जमुनी तहजीब को भी ठेस पहुंचेगी।

 

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Author: Khulasa Post

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