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- » मुख्य समाचार» जातिवादियों और समाजवादियों को अपनी जड़ों की ओर लौटने की मजबूरी
कृष्ण देव सिंह (कें डी सिंह, बुधवार समाचार पत्रिका )
भारत में सक्रिय समाजवादी और जातिवादी पृष्ठभूमि वाले राजनीतिक दल इन दिनों चौराहे पर खड़ा हैं। उन्हें समझ में नही आ रहा है कि आखिर अब वे किधर जाएं ? कुछ नेता कह रहे हैं कि हम जनता के बीच जाएंगे। पर, क्या लेकर उसके पास जाएंगे ? यह प्रश्न है जब कुछ देने के लिए आपके पास सरकार थीं तो जिसको जो कुछ दिया या नहीं दिया,उसका परिणाम तो लोकसभा चुनाव में मिल गया। दरअसल जब वे सत्ता में होते हैं तो उनके पास देने के लिए एक सरकार होती है। उस समय जब वे अंधे की रेवड़ी की तरह अपनों को ही बांटने में लगे रहे तो अब उनके पास व्यापक जनता का विश्वास पाने के क्या उपाय हैं ? अब तो उस स्थिति पर उनको विचार करना होगा कि वे व्यापक जनता से सिमट कर सीमित वोट बैंक तक क्यों सिमट गए।यदि ऐसा ही बना रहा तो देर -सवेर वही हाल होगा जो हाल की चुनाव कुछ राजनीतिक दलों का इस देश में हो चुका है। इन वर्षो में कई दल समय के साथ विलुप्त हो गए।
बड़ा सवाल है कि क्या उनकी मौजूदा कार्य नीति-रणनीति के सहारे उनके पुराने दिन लौट सकते हैं ? लगता तो नहीं है। अब उनको यानी समाजवादी जिन्हे जातिवादी व पारिवारवादी धारा भी कहते हैं, के दलों को राजग खासकर भाजपा से मुकाबला कर उससे वह वोट छीनना है, इसके लिए जरूरी है कि आप अपनी शैली बदलें। समाजवादी धारा की राजनीति और उसके भटकाव को पहले समझना होगा। स्वात्रंत्तोतर समाजवादी राजनीति को तीन कालावधियों में बांटा जा सकता है। आजादी के तत्काल बाद की समाजवादी राजनीति मुख्यतः आचार्य नरेंद्र देव ,जय प्रकाश नारायण डा.राम मनोहर लोहिया की आदर्शवादी राजनीति थीआजादी के बाद उसी अवधि में समाजवादी कार्यकर्ताओं का सबसे अधिक निर्माण हुआ।
1967 में डा.लोहिया के निधन के बाद राज नारायण,कर्पूरी ठाकुर और मधु लिमये की कालावधि की समाजवादी राजनीति रही। इस अवधि में समाजवादियों में कर्म व नैतिकता की कसावट आचार्य नरेंद्र देव-जेपी-लोहिया युग जैसी तो नहीं रही,पर सत्ताधारी कांग्रेसियों से वे साफ-साफ अलग नजर आते थे। पर कर्पूरी ठाकुर के 1988 में निधन के बाद बिहार में समाजवादी राजनीति की शैली ही पूरी तरह बदल गई।उत्तर प्रदेश में राजनारायण के बाद मुलायम सिंह यादव ने समाजवादी राजनीति की कमान संभाल ली।मुलायम-लालू की राजनीति कमोवेश एक समान रही है।
1990 का मंडल आरक्षण का जमाना था।मंदिर आंदोलन भी उसी दौरान चला।वह भावनाओं का भी दौर था। आरक्षण विरोधियों के आंदोलन का बिहार में मुख्य मंत्री के रूप में लालू प्रसाद ने बहादुरी से मुकाबला किया । वह सामाजिक न्याय का आंदोलन था जिसमें सफलता का लाभ लालू प्रसाद को सबसे अधिक मिला।इससे लालू प्रसाद गैर कुर्मी पिछड़ों के बीच लोकप्रिय हो गए।मुलायम सिंह यादव को भी उस दौर का लाभ मिला हलांकि मुलायम को सामाजिक न्याय के लिये कभी सघर्ष करते हुए नही देखे गये।लालू प्रसाद की सरकार ने लाल कृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा को रोका और उन्हें समस्ती पुर में गिरफ्तार करवाया । इसका लाभ भी मिला।1991 के लोक सभा चुनाव और 1995 के बिहार विधान सभा चुनाव में लालू प्रसाद के नेतृत्व वाले दल को भारी सफलता मिली पर उसी सफलता के साथ भटकाव भी शुरू हो गया।समय के साथ भटकाव बढ़ता ही चला गया।यादव और मुस्लिम मतदाता तो फिर भी लालू प्रसाद के साथ बने रहे,पर अन्य वोटर धीरे-धीरे कटने लगे।
2015 के बिहार विधान सभा चुनाव के समय तो जदयू से चुनावी तालमेल का लाभ राजद को बिहार में मिल गया,पर इस बार उसकी अनुपस्थिति में लोक सभा चुनाव में राजद जीरो पर आउट हो गया। इन विषम राजनीतिक परिस्थितियों से समाजवादी धारा वाले इस दल को कठिन मार्ग से गुजर कर अपने लिए रास्ता बनाना है।देखना है कि वह उसे कैसे पार करती है। पर बिहार आंदोलनों की भूमि रहा है।अब तो रास्ता जन आंदोलन का ही बचा है। आंदोलन के जरिए ही जनता से जुड़ने का विकल्प बचता है। हलाकिं राजद के पास एक ही बड़ी पूंजी है।वह है 1990 में मंडल आरक्षण के बचाव में किया गया जोरदार आंदोलन।
बालाकोट अभियान के अलावा राजग सरकार ने अपने विकास व कल्याण के कामों के जरिए भी मतदाताओं को अपनी ओर खींचा है।अपवादों को छोड़ दें तो ऐसे सम्यक विकास कार्यों से समाजवादी धारा की राजनीति को कम ही मतलब रहा है।राजग शासन काल में बिजलीकरण का भारी विस्तार हुआ है।यह सब राजग को अन्य दलों से अलग करता है। फिर भी राजद तथा अन्य गैर राजग दलों के लिए जनता से जुड़ने की राह बाकी है। राजग की सरकार के कार्यकाल में लोगों के बैंक खातों में सीधे सरकारी मद के पैसे जा रहे हैं।पर इसमें भी कमीशनखोरी की खबरें आती रहती हैं।अन्य सरकारी योजनाओं में भी बिचैलिए हावी हैं।उसमें संबंधित सरकारी कर्मचारियों की मिलीभगत है।थानों और अंचल कार्यालयों में शायद ही कोई काम पैसों के बिना हो रहा है।
साठ-सत्तर के दशक में सोशलिस्ट-कम्युनिस्ट दलों के कार्यकर्त्तागण सरकारी लूट और अत्याचारों के खिलाफ आंदोलन करते थे।जेल जाते थे। परचे छपवा कर बांटते थे।जिला-जिला धरना देते थे।अन्य तरह से भी लोगों की मदद में शामिल रहते थे। सोशलिस्ट कार्यकर्त्ताअपने इलाकों के भूमिहीन लोगों को अंचल कार्यालय से बासगीत का परचा दिलवाता था। बिना किसी रिश्वत के। तब संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी इस बात का ध्याान नहीं रखती थी कि यह तो सरकार का काम है,हम क्यों करें ? पर आज कुछ राजनीतिक कार्यकर्त्ता यह कह सकते हैं कि सरकार अपने कामों में विफल होगी तो उसका चुनावी लाभ खुद ब खुद हमें मिल ही जाएगा। पर यह आलसी कार्यकर्त्ताओं का तर्क है। दरअसल समाजवादी पृष्ठभूमि वाले दलों को अपने बीच से निःस्वार्थी व कर्मठ कार्यकत्र्ताओं की जमात तैयार करनी होगी। आज की पंच सितारा संस्कृति वाली राजनीति में यह काम कठिन है,पर असंभव भी नहीं।उन्हें स्थानीय स्तर पर भ्रष्टाचार और अन्याय के खिलाफ लड़ना सिखाना होगा।
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